चाय की प्याली
“हाँ ये चाय रख दो यहाँ पर” मैंने छोटू को मेज की तरफ इशारा करते हुए कहा, ये वक़्त शाम की चाय का था और पिछले कुछ दिनों से एक नया लड़का चाय देने आ रहा था,यूँ तो चाय उसी टपरी की थी,पर स्वाद और जायका बदल गया गया था,पहले एक लड़की वहाँ चाय बनाती थी और अब शायद उसका भाई।
मैं इस शहर में एक साल से रह रहा था,मैं एक छोटे से कस्बे का जोशीमठ का रहने वाला था और श्रीनगर जैसे बड़े शहर में पिछले एक साल से जल निगम में सहायक क्लर्क के पद पर था,यूँ तो काम कुछ ज्यादा था नहीं पर मेरे लिए बहुत जरूरी था, क्योंकि ये मेरी पहली नौकरी और दूसरी बात ये कि मैं घर से दूर निकल गया था जो कि मैं हमेशा से चाहता था।
मेरी आँखों में मेरे ऑफिस का पहला दिन चल रहा था ,जब मैं नई जगह नई नौकरी को लेकर उत्साहित और थोड़ा सा नर्वस भी था और अपने पहले ही दिन कुछ ऐसा करना चाहता था कि मेरा मन इस नई जगह में रम जाए,यूँ तो मैं कोई दक्षिण भारतीय फिल्मों का कोई फंतासी नायक तो था नहीं कि कुछ असाधारण कार्य कर दूं और सबकी नजरों में हीरो बन जाऊं.......मुझे तो खुद के लिए कुछ वजह तलाशनी थी जिसके बूते मैं एक नए और अपेक्षा कृत बड़े शहर में रह सकूँ।
ये सब कुछ मेरे अंतःपटल पर चल ही रहा था कि हमारे ऑफ़िस की कुछ बीस या इससे ज्यादा साल पुरानी घड़ी ने इशारा किया कि शाम के साढ़े चार बज चुके हैं, और जैसा कि हम भारतीयों का सामाजिक और सामुहिक तौर पर ये समय चाय पीने का है वैसे ही कुछ रीति रिवाज यहाँ मेरे नए ऑफिस में भी थे, सब लोग आतुर भाव से दरवाजे को ताकने लगे थे।और मेरे बगल में बैठे रावत जी पहले ही हमारे ऑफिस के चपरासी को चाय के लिए ऑर्डर देने को दौड़ा चुके थे और ताकीद कर चुके थे कि आज से एक कप चाय और मंगाई जाएगी जो कि मेरे प्रति उनका स्वागत करने का अपना तरीका था।
कुछ दो या तीन मिनट बाद मैं क्या देखता हूँ कि एक लड़की जिसकी उम्र यही कोई अट्ठारह या उन्नीस साल के आस पास रही होगी हाथों में चाय लिए अंदर चली आ रही है ,उसकी सांवली सूरत मेरे अंतर्मन में चोट कर रही थी और उसके दाएं गाल पर पड़ने वाला गड्ढा जिसे आमतौर पर लोग डिंपल कहते हैं उसे बहुत ही सुंदर बना रहे थे,उसके माथे पर शिकन थी या यूं कह सकते हैं जैसे जल्दबाजी थी उसे ,शायद दुकान छोड़कर आई थी वो बाहर लेकिन जो भी उसके चेहरे के वो भाव जिसमें जिम्मेदारी और कम उम्र में परिपक्व हो जाना मिश्रित रूप से विद्यमान थे और ऊपर से उसके चेहरे पर मुस्कुराहट की एक हल्की सी लकीर तो जैसे मेरे दिल के आर पार चली जा रही हो, मेरे लिए वैसे इस तरह का कोई पहला अनुभव नहीं था लेकिन ये लड़की कुछ तो अलग थी और मेरी नजरो में बहुत ऊंची भी।मैं उसे एकटक देखता ही जा रहा था ,वो मेरी मेज पर चाय का गिलास रख कर चली गयी मैं उसे निहारे जा रहा था,मेरे अंदर न जाने कहाँ से एक नई ऊर्जा संचार कर गयी थी आज दिन भर की नए काम का बोझ मैं सब कुछ भूल चुका था,शायद वो कुछ जादू भी जानती थी ।
शायद मुझे श्रीनगर में रहने की वजह मिल गयी थी।।
अब तो ये नित्य का कार्यक्रम हो गया ,शाम को साढ़े चार बजे सबसे ज्यादा आतुर होकर मैं ही दरवाजे को ताकता था और उसका इंतजार करता था,उसकी चाय की प्याली में न जाने क्या तिलिस्म था या यूं कहूँ की उसमें न जाने क्या तिलिस्म था कि मैं रोज दिन के इस पहर में अपना सब दुख दर्द,तकलीफें, बड़े बाबू की डांट, घर वालों के फ़ोन पर दी गयी हिदायतें सब कुछ भूल कर सिर्फ उसे देखता रहता था, इतने दिनों में उसका नाम तो पता चल गया था,स्नेहा..... लेकिन कभी उस से बात नहीं कर पाया और करता भी कैसे, हमारे आस पास एक दीवार है जिस पर टकरा कर अक्सर लोगों की भावनाएं उनकी संवेदना चकनाचूर हो जाती है और उस दीवार का नाम है समाज और न चाहते हुए भी मैं इस वक़्त अपने ऑफिस के सो कॉल्ड समाज मे था इसलिए मैंने कभी भी स्नेहा से बात करने की कोशिश नहीं की।
जैसा कुछ मेरे अंदर चल रहा था, वो शायद ज्यादा देर रुकने वाला नहीं था और जैसा कि मेरी प्रवृत्ति है कि मैं किसी भी भाव को ज्यादा समय तक अपने अंदर नहीं रख पाता इसी तरह ये भाव भी बाहर आने को छटपटा रहा था, ऐसे में मैने एक तरकीब निकाल ली कि मैं अब शाम को टपरी पर जाकर चाय पीने लग गया, पहले कुछ दिन मुझे रावत जी की नजरों में एक अलग ही ज्वाला दिखी कि ‘ओ अदने से बच्चे तेरी इतनी हिम्मत तू हमारे ऑफिस समाज के बनाये दायरे से बाहर जा रहा है ' लेकिन कुछ वक्त बाद सब चीजें पटरी पर आ गयी।
अब मेरा ध्येय था चाय की प्याली पर और चाय बनाने वाले उन हाथों पर.....तो धीरे धीरे हम दोनों में बातें होने लगी थी भले चाय के ही बहाने पर हम दोनों के बीच कुछ तो संवाद हुआ ।
वक़्त के साथ ये संवाद कुछ आगे बढ़ा और मुझे उसके बारे में कुछ और पता चला कि वो दिन में कॉलेज जाती है और शाम के वक़्त चाय की टपरी संभालती है उसकी बातों से पता चला कि उसके पिता एक वक्त पर इस टपरी के कर्ता धर्ता थे और खूब व्यापार करते थे, लेकिन दो साल पहले उन्हें आये हार्ट अटैक के बाद स्थिति कुछ बिगड़ गयी थी और टपरी को पूरे दिन संभाल पाना उनके लिये अब संभव नहीं हो सकता था ऐसे में स्नेहा ने मोर्चा संभालते हुए दुकान और अपने घर को अच्छे से संभाल लिया, उसकी बातों में जिम्मेदारी और परिवार में दो भाई एक बहन से बड़े होने का पता चलता था।
हम दोनों की उम्र में ज्यादा अंतर नहीं था मुश्किल से 2 या 3 साल का और शायद मैं एक अच्छा सुनने वाला था इसलिए वो बहुत बातें करती थी जो कि उसके भाव भंगिमा से मेल नहीं खाता था।
वो अक्सर अपनी जिम्मेदारियों की बातें करती थी और मैं उन लोगों में से रहा हूँ जो जिम्मेदारी लेने से भागता हूँ ये नौकरी भी घर से दूर भागने के लिए कर रहा था। उसका अक्सर मुझे जिम्मेदारी के ऊपर दिया गया व्याख्यान मेरे अंदर उसके उन्नीस साल के होने का संदेह पैदा करता था लेकिन वो बहुत समझदार थी या शायद जिम्मेदारियों ने उसे परिपक्व बना दिया था,उसकी बातें सुनकर मैं मानसिक और भावनात्मक रूप से तो उससे जुड़ रहा था पर सामाजिक रूप से दूर हो रहा था मुझे अब डर लगने लगा था कि कहीं मैं उसे अपने दिल के हाल बताउं और फिर हमारे बीच ये सबका हितैषी समाज न आ जाये इसलिए इस भाव को मैंने अपने हृदय के किसी कोने में दबा दिया।
फिर वक़्त बीतता गया और वक़्त के साथ मुझे एक चीज तो समझ आ गयी कि अभी इस वक़्त स्नेहा को दिल के हाल बताने से ज्यादा जरूरी है उसके साथ रहना अब हम दोस्त बन चुके थे वैसे काफी अजीब स्तर की दोस्ती थी ये हमारी मैं ठहरा सरकारी विभाग में लापरवाह सा संविदा कर्मचारी और वो उसी विभाग के बाहर चाय की टपरी चलाने वाली उन्नीस साल की एक जिम्मेदार लड़की। लेकिन हम दोनों काफी हद तक एक दूसरे के बारे में जान चुके थे और मुझे अब रोज उसके साथ छोटी छोटी चीजों पर बहस करने में ,उससे बातें करने में बहुत आनंद आने लगा था,मैं दिन भर के काम की सारी थकान,सब कुछ इस शाम में भूल जाता था और शायद वो भी।
ये आखिरी शाम थी जब मैं स्नेहा से मिला ,क्योंकि दीवाली के मौके पर मैं घर जाने वाला था।मैं टपरी पर गया और चाय पीने लगा लेकिन मेरी नजरें उसी पर थी ,वैसे ये रोज का काम था मेरा इसलिए वो भी चुपचाप अपना काम करती रहती थी तभी स्नेहा बोली -“ओ सेमवाल जी!" जैसा कि वो अक्सर मुझे कहती थी,उसकी आवाज सुनकर मैं अपनी ख्यालों की दुनिया (जिसकी मल्लिका सामने यथार्थ रूप से आवाज दे रही थी) से बाहर आया और उसकी तरफ गौर से देखने लग गया,वो बोली -“ क्या बात है काफी दिनों से देख रही हूँ आप जैसे कुछ कहना चाह रहे हो.....बता रही हूँ मैं कह दो......." ये कहकर वो खिलखिलाकर हँस पड़ी जैसे मुझे चिढा रही हो।मैं भी हंस पड़ा ये सुनकर।मैं-“अब क्या सुनेगी तू ...?मेरी सारी राम कथा तो तुझे पता है" इस बात पर हम दोनों हँसने लग गए।फिर मैं चाय खत्म कर ऑफिस चला गया।
इस बात को बीस दिन बीत गए लेकिन स्नेहा नहीं दिखी मुझे , मैं टपरी पर गया तो वहाँ उसका भाई काम कर रहा था।मैंने उससे पूछा-“ अरे भुला! आजकल तुम चाय बना रहे हो ,तुम्हारी दीदी कहाँ हैं ,उसकी तबीयत तो ठीक है?" उसने बिना मेरी तरफ देखे अपना काम करते हुए कहा -“भैजी ,अब दीदी नहीं आएगी काम करने ,वो चली गयी है" उसकी बात सुनकर मेरा दिल कांप उठा मेरे मन में विचारों का तूफान उमड़ गया पूरी दुनिया के बुरे ख्याल मेरे दिमाग पर चोट करने लग गए,मेरे माथे पर पसीने की बूंदे उभर आई,और मेरी सांसे तो जैसे किसी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर दौड़ने लग गयी ,मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था, मैंने किसी तरह खुद पर नियंत्रण करते हुए पूछा-“ कहाँ गयी तुम्हारी दीदी"।“भैजी दीवाली की शाम उसकी शादी हो गयी।" उसका ये बोलना था कि मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई, वो तो अपने कार्य में व्यस्त था नहीं तो अगर वो मेरे चेहरे के भावों को देखता तो न जाने क्या सोचता,मेरे लिए तो ये खबर ऐसी थी कि जैसे मैं चलते चलते दुनिया के आखिरी छोर पर पहुंच गया हूँ आगे कुछ दिखता ही नहीं था,किस से बात करूं क्या बात करूं मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। शाम को किसी तरह मैं अपने कमरे तक पहुंच तो गया लेकिन आज कमरें की दीवारें मुझे जैसे खाने को दौड़ रही थी,मेरे कमरे में रखी मेज और कुर्सी जैसे कह रही थी कि तुम हार गए, और हमेशा की तरह तुम अकेले हो गए,मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा था ,यूँ तो मैं रात भर सोता नहीं था पर आज की रात तो जैसे मुझे हँस हंस कर चिढ़ा रही थी मेरे कानों में एक ही बात गूंज रही थी जोकि स्नेहा के आख़िरी शब्द थे“बता रही हूँ मैं... कह दो"
अब मेरे दिमाग में बस एक ही बात घूम रही थी,क्या वो मेरे दिल के भाव समझ गई थी, या उसने यूँ ही मजाक में कहा था ये सब.....वैसे जिस तरह की वो बातें अक्सर करती थी ये बात बिल्कुल सही लग रही थी कि उसे पता था मैं उसके लिए क्या महसूस करता हूँ जो भी हो अब वो काफी दूर निकल चुकी थी मुझ से.........वैसे मेरी इस कहानी को प्रेम कहानी तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि मैं खुद नही जानता कि मुझे उससे प्रेम हो गया था या मैं उसमें वो ढूंढ रहा था जो मैं कभी नहीं बन पाया था जिम्मेदार....... क्योंकि उसकी यहीं बात मुझे सबसे पहले अच्छी लगी थी उसका अपने घर की जिम्मेदारी को उठाना...छोटी सी उम्र में बड़ो से भी ज्यादा परिपक्वता के साथ जिंदगी की समस्याओं से लड़ना उसे मेरी नजरों में ऊंचा कर गया था और .....ये सवाल अब भी मेरे मन में चल रहा था कि क्या उसे पता था कि मैं उसके लिए क्या सोचता हूँ? और अगर उसे पता था तो उसका जवाब क्या होता?
©सेमवाल जी नवोदय वाले
❤️❤️❤️❤️
ReplyDelete🖤🖤🖤🖤
ReplyDelete❣️😍😍❣️
ReplyDeleteWaah 👌😇
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ReplyDeleteGood
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ReplyDeleteGreat work🔥
ReplyDelete🔥🔥🔥❤️
ReplyDeleteWah wah
ReplyDeleteWaah🔥
ReplyDelete🥰😍🔥🔥oh nice
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