प्रेम पत्र -2
तो हुआ यूं कि हम दोनों की मुलाकात के बाद मैं अपने कमरे में लौट कर आया। कुछ अनमने से भावों की उधेड़बुन में फँसा हुआ था। किसी तरह खाना पकाया, जैसे तैसे दो कौर निगल कर अपने बिस्तर पर गिर गया। मेरा बिस्तर जो पिछले पांच सालों में मेरे हर एक दुख-सुख, मेरे अवसादों, मेरी खिलखिलाहटों, मेरी मुस्कुराहटों और मेरे आँसुओं का एक अकेला गवाह था, उसने भी मुझे किसी प्रेमी की तरह अपनी बाहों में भर लिया। इसके साथ ही शुरू हो गया मेरे तुम्हारे बारे में सोचने का अनवरत सिलसिला, जो कि बहुत दिनों से मेरी और मेरी नींद के प्रेम का दुश्मन बना बैठा था लेकिन इस चीज ने मुझे कभी परेशान नहीं किया। मेरी आँखें एकटक छत पर घर्र घर्र करते पँखे पर टिकी हुई थी और मेरा दिमाग, मेरा दिल जो तुम्हारे लिए मुझसे क़ई बार गद्दारी कर चुका था, बस तुम्हारे ही बारे में सोचने लग गया। वैसे तो मैंने सोच की सारी हदें पार की और अपनी सोच में तुम्हें अच्छा बुरा, बहुत कुछ बनाया लेकिन बात का सार कुछ इस तरह से निकला कि- "हाँ! मुझे बुरा लगता है, खीझ होती है, जलन होती है जब तुम मुझ से किसी और लड़के की बातें करती हो, वो शायद तुम्हारा प्रेयस हो या कोई...