प्रेम पत्र -2
तो हुआ यूं कि हम दोनों की मुलाकात के बाद मैं अपने कमरे में लौट कर आया। कुछ अनमने से भावों की उधेड़बुन में फँसा हुआ था। किसी तरह खाना पकाया, जैसे तैसे दो कौर निगल कर अपने बिस्तर पर गिर गया। मेरा बिस्तर जो पिछले पांच सालों में मेरे हर एक दुख-सुख, मेरे अवसादों, मेरी खिलखिलाहटों, मेरी मुस्कुराहटों और मेरे आँसुओं का एक अकेला गवाह था, उसने भी मुझे किसी प्रेमी की तरह अपनी बाहों में भर लिया। इसके साथ ही शुरू हो गया मेरे तुम्हारे बारे में सोचने का अनवरत सिलसिला, जो कि बहुत दिनों से मेरी और मेरी नींद के प्रेम का दुश्मन बना बैठा था लेकिन इस चीज ने मुझे कभी परेशान नहीं किया। मेरी आँखें एकटक छत पर घर्र घर्र करते पँखे पर टिकी हुई थी और मेरा दिमाग, मेरा दिल जो तुम्हारे लिए मुझसे क़ई बार गद्दारी कर चुका था, बस तुम्हारे ही बारे में सोचने लग गया।
वैसे तो मैंने सोच की सारी हदें पार की और अपनी सोच में तुम्हें अच्छा बुरा, बहुत कुछ बनाया लेकिन बात का सार कुछ इस तरह से निकला कि-
"हाँ! मुझे बुरा लगता है, खीझ होती है, जलन होती है जब तुम मुझ से किसी और लड़के की बातें करती हो, वो शायद तुम्हारा प्रेयस हो या कोई दोस्त ही। मुझे बुरा लगता तो है लेकिन इस बात का नहीं कि तुम मुझ से उसकी अच्छाइयां, उसकी खट्टी मीठी बातें करती हो। सच कहूँ तो मुझे बुरा इस बात का लगता है और शायद जीवन भर लगता रहेगा कि जिस तरह से मैंने तुम्हें पसन्द किया, तुम मुझे कभी भी उस तरह से पसन्द नहीं कर पाई। मेरे प्रेम की नियति बस इतनी ही रही है कि मैं दूर से तुम्हें खिलखिलाता हुआ देखकर ही मुस्कुराता रहूँगा। अगर मैं कोशिश करूँ तुम्हारे पास आने की तो शायद तुम हँसना छोड़ दो और मुझ से बहुत ही गम्भीर फिलोसॉफिकल बातें करने लगोगी और हँसना भूल जाओगी। बस ये एक चीज मुझे रोकने लगती है तुम्हारे बगल में बैठ कर तुम्हें अपने दिल के हाल बताने से और मैं भी तुमसे कुछ न बताकर, एक सच्चे प्रेमी, (जिसने त्याग को ही अपने प्रेम का चरम बिंदु मान लिया हो और दूर से ही प्रेमिका को खुश देखकर खड़े तकते रहने को ही प्रेम की जीत मान लिया हो) की उपमा खुद को मन ही मन देकर खुश हो जाता हूँ। मेरा मन किसी न किसी कोने से इस चीज को नकार रहा है, मेरा प्रेम स्वार्थी क्यों नहीं हुआ जो तुम्हें किसी से भी छीन लाने के लिए तैयार हो जाये! प्रेम भी बड़ा अजीब सा समीकरण है एक पल में तुम्हें सबसे आगे करके मुझे कुछ भी कर जाने को कहता है और दूसरे ही पल में तुम्हें कुछ भी न बताने को कहने लगता है। मेरा प्रेम तुम्हारे लिए हमेशा इसी तरह मेरे मन को बरगलाता रहेगा और ईमानदारी से कहूँ तो ये चीज न जाने क्यों मेरे लिए एक आरामदेह कुर्सी बनती जा रही है जिससे मेरा उठने का मन ही नहीं करता है। शायद उस कुर्सी पर कभी तुम बैठी हो और तुमने अपनी खुशबू उस पर अनन्त काल के लिए रख छोड़ी हो
मेरी तुमसे हैं कुछ शिकायतें कि तुम मेरे सामने वैसे क्यों नहीं हँसती हो जैसे तुम उनके सामने हँसती हो जिनकी बातें मुझ से करती हो और इस से बड़ी और बहुत बड़ी शिकायत खुद से है कि मैं कभी क्यों तुम्हारी वो पसन्द नहीं बन पाया।"
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